NGT की पहल पर कई संसथान जैसे की CPCB और IIT Delhi और अन्य इसी खोज में लगें हैं की दिल्ली में प्रदूषण खासकर PM 2.5 का स्तर इतना अधिक क्यों बढ़ जाता, सर्दियों के दौरान।
अब पता चला है की इसके लिए अफ़ग़ानिस्तान का नमक, इराक, कुवैत और सऊदी अरब की धूल, और हरियाणा की औद्योगिक इकाइयां हैं। अफ़ग़ानिस्तान से पश्चिमी हवाओं के साथ नमक उड़कर आता है। इराक, कुवैत और सऊदी अरब से धूल उड़कर दिल्ली पहुंचती है। Chromium और Copper पश्चिमी हवाओं के साथ दिल्ली पहुँचते हैं हरियाणा से।
यह सब तो कई साल पहले से होता रहा है परन्तु पहले कभी इतना प्रदूषण नहीं हुआ। कुछ सालों पहले तक तो सभी बसें, ट्रक, रेलवे इंजन और अन्य सभी वहां बहुतायत में सभी इस demonic डीजल से चला करते थे वो भी बिना रोक टोक। दिल्ली और अन्य कई जगहों पर कला धुआं छोड़ने वाले NTPC की चिमनियां हुआ करती थी जो नियमित रूप से भारी मात्रा में काले भारी धुएं का विसर्जन करती थी वायुमंडल में।
तो फिर अब क्या हो गया ? अब तो लगभग सारे वाहन प्रदूषण रहित CNG और स्वच्छ Petrol पर चलते हैं !
अफ़ग़ानिस्तान का नमक, पश्चिमी एशिया की धूल, यह सब तो प्राचीन काल से होता रहा होगा और इसमें कुछ भी नया नहीं है। Chromium और Copper का प्रदूषण कुछ नया जरूर हो सकता है पर वो भी बिलकुल नया नहीं है।
तो अब चलते हैं नए कारणों पर:-
शहरों की जनसँख्या में अत्यधिक बदलाव। दिल्ली जैसे शहर में जहाँ कभी एक मंजिला मकान हुआ करते थे वहां अब पांच से छै मंजिला मकान बन चुके हैं। इसी कारण अनियमित कॉलोनियों में जनसँख्या बहुत अधिक बढ़ चुकी है। जनसँख्या के हिसाब से ही शहर में विभिन्न प्रकार के पकवान पकाने वाले ठेले और ढाबों और दुकानों की भी भरमार हो चुकी है। ज्यादातर ठेले वाले मिटटी तेल का इस्तेमाल करते हैं कुछ भी पकाने के लिए। तंदूर का बहुतायत में इस्तेमाल होता है। ये सब प्रदूषण के करक हैं। ज्यादा जनसँख्या मतलब ज्यादा रसोइयां ज्यादा चूल्हे, तरह तरह के खाद्य और अन्य तेल। JJ Clusters में अभी भी कई लोग लकड़ी का भी इस्तेमाल करते हैं खाना पकाने के लिए। और फिर सर्दियों में आग तापना और सेंकना वो भी कूड़ा करकट और लकड़ियां जला करके। ये सभी कारक हैं प्रदूषण के।
और एक और चीज बदली है आजकल वो है हमारा अत्यधिक रूप से पर्यावरण के प्रति जागरूक होना। इस जागरूकता और NGT के प्रयासों का नतीजा है जो की आजकल सभी वहां या तो स्वच्छ पेट्रोल या गैस चालित हो गए हैं। डीजल की बसें, ट्रक , NTPC की धुआंधार चिमनियां सब हट चुके हैं। इसका एक नतीजा यह हुआ की वातावरण में कार्बोन की मात्रा (मोटी काली धूल ) बिलकुल ही लगभग समाप्त हो गई है।
हो सकता है की ये मोटे कार्बोन के कण ही प्रदूषण को सोख (absorb) कर हवा को साफ करते रहे होंगे। आखिरकार कार्बन के कणों से पानी , हवा अभी भी साफ़ किया जाता है। उसका सबसे बड़ा जीता जगता उदाहरण है R.O. System जो की एक्टिवेटिड कार्बन के कणों से जल को स्वच्छ बनाता है। वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं को इस और भी ध्यान देना चाहिए।
डीजल गाड़ियां और NTPC की चिमनियां जो धुआं पैदा करती थीं वो कार्बन के मोटे कण (not PM 2.5) होते थे जो की हवा में उड़कर उसका प्रदूषण अपने में समाकर कुछ समय बाद नीचे बैठ जाते थे और प्रदूषण को कम करते थे। ये कण PM 2.5 की अपेक्षा काम हानिकारक थे क्यूंकि ये एक तो ये रक्त में नहीं मिल सकते और दूसरा ये कुछ समय बाद जमीन पर बैठ जाते हैं। शायद हम लोगों ने प्रदूषण काम करने की होड़ में खतरनाक प्रदूषण को बढ़ावा दिया। यहाँ पर मेरा आशय ये नहीं है की प्रदूषण फैलाया जाये बल्कि प्रदूषण बढ़ाने वाले कारकों के साथ साथ शोधकर्ताओं को प्रदुषण काम करने वाले कारकों की और भी ध्यान देना चाहिए।
पढ़ने के लिए धन्यवाद।
आपका दिन शुभ हो।
अब पता चला है की इसके लिए अफ़ग़ानिस्तान का नमक, इराक, कुवैत और सऊदी अरब की धूल, और हरियाणा की औद्योगिक इकाइयां हैं। अफ़ग़ानिस्तान से पश्चिमी हवाओं के साथ नमक उड़कर आता है। इराक, कुवैत और सऊदी अरब से धूल उड़कर दिल्ली पहुंचती है। Chromium और Copper पश्चिमी हवाओं के साथ दिल्ली पहुँचते हैं हरियाणा से।
यह सब तो कई साल पहले से होता रहा है परन्तु पहले कभी इतना प्रदूषण नहीं हुआ। कुछ सालों पहले तक तो सभी बसें, ट्रक, रेलवे इंजन और अन्य सभी वहां बहुतायत में सभी इस demonic डीजल से चला करते थे वो भी बिना रोक टोक। दिल्ली और अन्य कई जगहों पर कला धुआं छोड़ने वाले NTPC की चिमनियां हुआ करती थी जो नियमित रूप से भारी मात्रा में काले भारी धुएं का विसर्जन करती थी वायुमंडल में।
तो फिर अब क्या हो गया ? अब तो लगभग सारे वाहन प्रदूषण रहित CNG और स्वच्छ Petrol पर चलते हैं !
अफ़ग़ानिस्तान का नमक, पश्चिमी एशिया की धूल, यह सब तो प्राचीन काल से होता रहा होगा और इसमें कुछ भी नया नहीं है। Chromium और Copper का प्रदूषण कुछ नया जरूर हो सकता है पर वो भी बिलकुल नया नहीं है।
तो अब चलते हैं नए कारणों पर:-
शहरों की जनसँख्या में अत्यधिक बदलाव। दिल्ली जैसे शहर में जहाँ कभी एक मंजिला मकान हुआ करते थे वहां अब पांच से छै मंजिला मकान बन चुके हैं। इसी कारण अनियमित कॉलोनियों में जनसँख्या बहुत अधिक बढ़ चुकी है। जनसँख्या के हिसाब से ही शहर में विभिन्न प्रकार के पकवान पकाने वाले ठेले और ढाबों और दुकानों की भी भरमार हो चुकी है। ज्यादातर ठेले वाले मिटटी तेल का इस्तेमाल करते हैं कुछ भी पकाने के लिए। तंदूर का बहुतायत में इस्तेमाल होता है। ये सब प्रदूषण के करक हैं। ज्यादा जनसँख्या मतलब ज्यादा रसोइयां ज्यादा चूल्हे, तरह तरह के खाद्य और अन्य तेल। JJ Clusters में अभी भी कई लोग लकड़ी का भी इस्तेमाल करते हैं खाना पकाने के लिए। और फिर सर्दियों में आग तापना और सेंकना वो भी कूड़ा करकट और लकड़ियां जला करके। ये सभी कारक हैं प्रदूषण के।
और एक और चीज बदली है आजकल वो है हमारा अत्यधिक रूप से पर्यावरण के प्रति जागरूक होना। इस जागरूकता और NGT के प्रयासों का नतीजा है जो की आजकल सभी वहां या तो स्वच्छ पेट्रोल या गैस चालित हो गए हैं। डीजल की बसें, ट्रक , NTPC की धुआंधार चिमनियां सब हट चुके हैं। इसका एक नतीजा यह हुआ की वातावरण में कार्बोन की मात्रा (मोटी काली धूल ) बिलकुल ही लगभग समाप्त हो गई है।
हो सकता है की ये मोटे कार्बोन के कण ही प्रदूषण को सोख (absorb) कर हवा को साफ करते रहे होंगे। आखिरकार कार्बन के कणों से पानी , हवा अभी भी साफ़ किया जाता है। उसका सबसे बड़ा जीता जगता उदाहरण है R.O. System जो की एक्टिवेटिड कार्बन के कणों से जल को स्वच्छ बनाता है। वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं को इस और भी ध्यान देना चाहिए।
डीजल गाड़ियां और NTPC की चिमनियां जो धुआं पैदा करती थीं वो कार्बन के मोटे कण (not PM 2.5) होते थे जो की हवा में उड़कर उसका प्रदूषण अपने में समाकर कुछ समय बाद नीचे बैठ जाते थे और प्रदूषण को कम करते थे। ये कण PM 2.5 की अपेक्षा काम हानिकारक थे क्यूंकि ये एक तो ये रक्त में नहीं मिल सकते और दूसरा ये कुछ समय बाद जमीन पर बैठ जाते हैं। शायद हम लोगों ने प्रदूषण काम करने की होड़ में खतरनाक प्रदूषण को बढ़ावा दिया। यहाँ पर मेरा आशय ये नहीं है की प्रदूषण फैलाया जाये बल्कि प्रदूषण बढ़ाने वाले कारकों के साथ साथ शोधकर्ताओं को प्रदुषण काम करने वाले कारकों की और भी ध्यान देना चाहिए।
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आपका दिन शुभ हो।